कैरेज वर्कशॉप माटुंगा अंधेर नगरी…

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भव्य शाह,

माटुंगा वर्कशॉप अपनी गुणवत्ता के लिए जाना जाता रहा है। इतिहास साक्षी है कि यहां के कुशल कारीगरों ने कठिन से कठिन कार्यों को बखूबी अंजाम दिया है। किसी जमाने में यहां प्रेसीडेंट सैलून तक का पीओएच किया जाता था। यहां लगभग 30 विभिन्न शॉप हैं। पूर्व में स्मिथी शॉप में सैकड़ों कम्पोनेंट यहां बनाए जाते थे। धीरे-धीरे उत्पादन का कार्य बंद कर आउटसोर्स कर दिया गया। बड़ी-बड़ी उत्पादक मशीनों को स्क्रेप में बेच दिया गया। आत्मनिर्भता समाप्त तो कर ही दी गई साथ ही गुणवत्ता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। आज यह आलम है कि सप्लायरों का यहां तांता लगा रहता है। सांठ-गांठ ऐसी है कि कौडियों का माल हजारों में खरीदा जाता है। होड़ लगी रहती है कि किस कार्य को आउटसोर्स किया जाए। यह न तो रेलवे के हित में है और न ही रेल यात्रियों के। एक शॉप जिसे विंडो शटर सेक्शन कहते हैं के बारे में पता चला कि किस तरह यहां कार्यरत कामगारों को भीषण कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। कुछ ही दिन पहले एक ट्रेन में यात्रा कर रहे एक मासूस बच्चे के हाथ पर विंडो शटर गिर गया था। दर्द से कराह रहा वो बच्चा और उसके मां-बाप किससे शिकायत करते। सिर्फ रेलवे को कोस रहे थे और बद्दुआएं दे रहे थे। कामगार बेचारा क्या करे विंडो शटर में जो रबर प्राफाइल लगती है उसकी गुणवत्ता की किसी को परवाह ही नहीं है। 50 से 70 प्रतिशत तक खराब क्वालिटी की रबर प्रोफाइल सप्लाई होती है। यही हाल शटर इक्यूलाइजिंग स्प्रिंग का है। सैकड़ों की मात्रा में नई स्प्रिंग खराब होने के कारण कंडम कर स्क्रेप में फेंक दी जाती है। एक शूट बोल्ड स्प्रिंग लगाई जाती है। उसका साइज छोटा होने के कारण वह फिट नहीं हो पाती। कामगार बेचारा क्या करे, आऊटटर्न तो निकलना ही होता है। ऊपर से प्रेशर आता है कैसे भी पूरा करो। स्प्रिंग फिट करते-करते उसके हाथों में छाले तक पड़ जाते हैं। फाइबर के जो लोअर शटर सप्लाई किए जाते उनकी डायमेंशन मानकों के हिसाब से नहीं होती। कहीं मोटा तो कहीं टेढ़ा। उसको फिट करने में कामागारों के पसीने छूट जाते हैं। कितने नए शटर तो टूटे हुए पाए जाते हैं। 2017-18 में 6533 नए शटर इस्तेमाल किए गए जो लगभग रु. 1000 प्रति नग के रेट से रेलवे को सप्लाई हुए। 9000 रबर प्रोफाइल इस्तेमाल की गई रु. 20 से रु. 50 प्रति नग की दर से। इसी तरह से अन्य आयटम खरीदे गए। सवाल यह उठता है कि क्या रिजेक्टेड मैटेरियल का पैसा रेलवे को वापिस मिला? यह एक गंभीर सवाल है। इससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण यह है कि ट्रेन में सफर करने वाले यात्रियों की सरंक्षा के साथ खिलवाड़ क्यों किया जा रहा है। रेल प्रशासन इस ओर चुप्पी साधे बैठा है। अभी तो केवल एक सेक्शन की खामियां सामने आयीं हैं अन्य सेक्शनों पर अगर जांच-पड़ताल की जाएगी तो क्या-क्या पोल खुलेगी यह तो समय ही बताएगा।

एक जागरुक कामगार और मान्यता प्राप्त युनियनों के प्रतिनिधियों तथा सेफ्टी सेल से जुड़े कर्मचारियों को अपनी भूमिका जरूर निभानी चाहिए। वर्टीकल गार्डन, रंग रोगन और पेंटिंग बना देने से झूठी वाह-वाही लूटने से वर्कशॉप की असली तस्वीर सामने नहीं आती। हकीकत को समझना जरूरी है। सक्षमता सिर्फ कागजों पर नहीं व्यवहारिक होनी चाहिए। क्या इस दिशा में सर्तकता विभाग और बड़े रेल अधिकारी ध्यान देंगे? रेलवे की छवि में सुधार और संरक्षा सुनिश्चित करनी ही चाहिए।

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