रेलवे में विजिलेंस यानि सतर्कता विभाग का अपना एक अलग महत्व है। किसी भी तरह की अनियमितता या भ्रष्टाचार की जांच-पड़ताल कर उसे उजागर करने के साथ-साथ ईमानदार रेलकर्मियों के हितों की रक्षा करना भी इस विभाग की नैतिक जिम्मेदारी है। इस विभाग में डेप्यूटेशन पर नियुक्ति होती है जिसका कार्यकाल निश्चित अवधि का होता है। अत: कार्यकाल समाप्त होने के उपरांत कर्मचारी को अपने पेरेंट विभाग में विभाग में वापिस आना पड़ता है। यही कारण है कि बड़ी मछली को छोड़कर छोटी मछलियों को जाल में फसाया जाता है। कारण और भी हो सकते हैं परंतु सतर्कता विभाग द्वारा पूर्ण पारदर्शिता के साथ कार्य करना बहुत जरूरी है। बड़े से बड़ा अफसर हो या छोटे से छोटा कर्मचारी सभी को एक समान दृष्टि से देखकर जांच करनी चाहिए। प्राय: यह देखा जाता है कि जांच-पड़ताल पूरी होने के बाद विजिलेंस विभाग द्वारा कर्मचारी को शास्ती आरोपित करने का सुझाव संबंधित अधिकारी को भेज दिया जाता है। मेजर पेनल्टी या माइनर पेनल्टी जो भी हो। अब सवाल यह उठता है कि डिसिप्लिनरी अथॉरटी द्वारा उपयुक्त पेनल्टी इम्पोज करने के बाद एड्यूकेसी के लिए विजिलेंस विभाग को क्यों भेजा जाता है। सक्षम अधिकारी विजिलेंस के कहने के अनुसार कार्य करने को बाध्य नहीं होना चाहिए। इस विषय पर ष्ट्रञ्ज, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक की राय यही है। इसी तरह के एक मामले (ओ.ए. नं. 246/2004) में ष्ट्रञ्ज के निर्णय में यह साफ कहा गया है कि विजिलेंस विभाग सजा के बारे में केवल सुझाव दे सकता है बाध्य कदापि नहीं कर सकता। सजा किस स्तर की दी जाए यह डिसिप्लीनरी अथॉरिटी के विवेक पर निर्भर करता है।
इसी तरह के एक अन्य मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट में दाखिल एक याचिका (नं. 8127/2005) के संबंध में निर्णय देते हुए यह कहा गया कि विजिलेंस विभाग जो प्रोसीक्यूटर है पेनल्टी इम्पोज करने में दखलंदाजी कदापि नहीं कर सकता। यदि वह ऐसा करता है तो उससे नेच्यूरल जस्टिस प्रभावित होती है तथा इससे डिसिप्लीनरी अथॉरिटी द्वारा लिए जाने वाले निर्णय की स्वतंत्रता को ठेस पहुंचाती है। इस तरह के निर्णय और प्रावधान को अहमियत देनी चाहिए और संबंधित अधिकारियों को भी अपने अधिकारों का संपूर्ण ज्ञान होना चाहिए। कर्मचारी से यदि कोई चूक हो भी जाती है तो उसे सुधरने का मौका तो देना ही चाहिए।