डॉ. आर.पी. भटनागर,
प्रत्येक इंसान अपने परिवार से जुड़ा है, समाज से जुड़ा है, गांव, शहर से जुड़ा है, प्रदेश से जुड़ा है और सबसे ऊपर अपने देश के साथ जुड़ा है। आज की इस भागदौड़ की जिंदगी में इंसान की सोच का दायरा कुछ सिकुड रहा है। कहीं ऐसा प्रतीत होता है जैसे स्वार्थ हावी होता जा रहा है। इंसान की सोच संकुचित होती जा रही है। जहां एक ओर मीडिया जगत हमारी सोच पर हावी होता जा रहा है वहीं दूसरी ओर मोबाइल फोन के पागल प्रेम ने रिश्तेनातों के निश्चल प्रेम को भुला दिया है। हर समय मोबाइल फोन पर उंगलियों की थिरकनों ने दिलों की धड़कनों से नाता तोड़ लिया है। यदि देश को सुधारना है तो शुरुआत परिवार से ही की जानी चाहिए। प्रत्येक मां-बाप का यह कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें, भारतीय संस्कृति और सभ्यता से उन्हें अवगत कराए उनमें नैतिक मूल्यों का विकास करें। बच्चों को भी अपने अभिभावकों एवं बड़े-बुजुर्गों का सम्मान करना चाहिए। इसके लिए वार्तालाप बहुत जरूरी है। यदि परिवार के सदस्य आपस में बातचीत न करके मोबाइल फोन, इंटरनेट की काल्पनिक दुनिया में खोए रहेंगे तो सकारात्मक सोच कभी पनप नहीं सकती। इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। इसी तरह समाज के प्रति भी हमारे कुछ उत्तरदायित्व होते हैं जिन्हें निभाना जरूरी है। समाज में यदि जागरुकता का आभाव है तो स्वच्छ भारत अभियान हो या कोई अन्य, सफल हो ही नहीं सकता। इस देश में स्वामी विवेकानंद, कांतीज्योति, ज्योतिबा फुले, डॉ. बाबा साहब अंबेडकर जैसे अनेक समाज सुधारक पैदा हुए जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन समाज में फैली कुरितियों को दूर करने में समर्पित कर दिया। आज वही सोच, वही विचारधारा की जरूरत आन पड़ी है।
प्रांतवाद, भाषावाद, जातिवाद के चंगुल में हमें बाहर निकलना होगा। जिस मातृभूमि में हमने जन्म लिया उसके प्रति हमारा असीम श्रद्धा-भाव होना चाहिए। जिस देशप्रेम का जज्बा लिए अनेकों अमर शहीदों ने इस देश की खातिर हंसते-हंसते अपने प्राणों की बाजी लगा दी वह जज्बा कहीं खो सा गया लगता है। प्रत्येक देशवासी को अपनी दैनिक दिनचर्या में राष्ट्रहित को समाहित करना चाहिए। अपनी सोच में देशप्रेम का पलथन लगाना चाहिए। इसी तरह संगठन से जुड़े हुए प्रत्येक कार्यकर्ता का भी यह परम दायित्व होना चाहिए कि वह ऐसी सोच पैदा करे जिसमें संगठन का भला हो। इसके लिए व्यक्तिगत स्वार्थ को दूर रखना होगा। हम क्या बोल रहे हैं, क्या लिख रहें हैं, क्या सोच रहे हैं, हम क्या कर रहे हैं-सभी मामलों में सोच सकारात्मक और संगठन के हित में होनी चाहिए। मन में किसी प्रकार की दुविधा होने से हमारी सोच का प्रभावित होना स्वाभाविक है। संगठन एक ऐसा माध्यम है जिसके जरिए हम समाज और देश दानों का हित कर सकते हैं। अत: अपनी सोच को दूषित न होने दें और मानवता के कार्यों में जुट जाएं तभी संगठन ओर देश का समुचित विकास संभव है।