मजदूर की कलम से…सेवानिवृत्त हो रहे कामगारों की भरपाई कैसे होगी?

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नीरज सिंह अधिकारी, माटुंगा वर्कशॉप,

यह एक ज्वलंत मुद्दा है, जिसके विषय में कोई बात नहीं कर रहा है कि रेल कामगार सेवानिवृत्त तो हो रहा है, नतीजा बचे खुचे कामगार कुछ युवा कामगारों के साथ बहुत ही मानसिक दबाव में काम कर रहे हैं। हम ईएमयू माटुंगा की यदि बात करें तो हर वर्ष 40-50 कर्मचारी सेवानिवृत्त हो रहे हैं, इस वर्ष 2017 में 36 कर्मचारी, औसतन 3 लोग प्रतिमाह, वीआरएस और आकस्मिक निधन अलग से। साधारणत: देखा जाए तो जो कामगार 35-40 साल की सेवा देकर सेवानिवृत्त होता है, वो अकेले नहीं जाता वो अपने साथ सालों का अनुभव व काम के प्रति दृढ़ इच्छाशक्ति भी लेकर जाता है। उस एक की कमी चार नए लोग भी पूरी नहीं कर सकते। ये कुशल कामगार उन मशीनी पुरजों से सालों से खेल रहे होते हैं। कामगार का हाथ इन मशीनों के लिए मां की गोद की तरह है, जो छू लेने भर, एहसास से बता देते हैं कि समस्या क्या है। रबड़ गॉसकिट को छू कर बता देंगे की यह सही है या गलत। स्प्रिंग को हाथ से दबा कर बता देंगे कि कितना टेंशन का है, लेकिन ये सब अब जा रह हैं धीरे-धीरे। अब आ कौन रहा है? फिलहाल तो कोई नहीं, वर्ष 2014 में आरआरसी से माटुंगा व कुर्ला, कलवा, सानपाडा के लिए 1000 के करीब खलासी आए थे, ज्यादातर पढ़े लिखे डिग्रीधारी, किसी-किसी ने तो और जगह भी परीक्षा दी थी, पास होने पर चले गए, कुछ घर के नजदीक स्थानांतरण की जुगत में भिड़ गए, कुछ ऑफिस कार्यों में सेट हो गए, लेकिन जो बचे हैं, उनको यदि डिपार्टमेंटल परीक्षा से प्रमोशन कर फिटर बनाएंगे तो वो काम सीखेंगे और आगे चलकर परेशानी नहीं होगी और उनकी जगह आरआरसी से नई भरती कर युवाओं को लाया जाए तो कुछ भरपाई हो सकती है। पता नहीं प्रशासन व सरकार क्या सोचे बैठे हैं।
फिर भी काम तो हो रहा है, गाडिय़ां तो पीओएच होकर निकल रही हैं। कैसे? यह कामगार को पता? लेकिन इस दबाव का असर हमारी मुंबई की लाईफ लाईन पर नहीं पड़े यह सोचने का विषय है।
सेवानिवृत्ति की तारीख तो तय है, क्या उनकी भरपाई की तरीख तय होगी कभी।

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