ऐसे परिवेश में…क्या संभव है…? स्वस्थ…सुरक्षित…सुखमय जीवन

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– अमित भटनागर,

वर्तमान परिवेश में जहां हर दिन एक नए परिवर्तन की लहर चल रही हो समय तीव्रता से करवट बदल रहा हो। नित-नए प्रशासनिक विचार सामने आ रहे हों। ऐसे में अत्यावश्यक है कि मजदूर हितों के संबंध में भी हमें अपनी व्यूह प्रणाली बदलनी होगी। रेल की आधारशिला रेल मजदूर हैं।

रेल की पहचान रेल मजदूर हैं, और तो और रेल उद्योग की समुचित व्यस्था भी रेल मजदूर ही हैं। जब भारतीय रेल हर क्षेत्र में अत्याधुनिक तथा आयातित तकनीकि के नित-नए प्रयोग हो रहे हों। परंपरागत तरीकों को त्याग यात्रियों के संतोष के लिए बेहद खर्चीले प्रयोग किए जा रहे हों तब रेल मजदूर को परंपरागत तरीके से आवास, चिकित्सा, कार्यस्थल के वातावरण में जीने को क्यों मजबूर किया जा रहा है? कहते हैं कि स्वस्थ्य वातावरण स्वस्थ्य मतिष्क को जन्म देता है। स्वस्थ्य मस्तिष्क नए अविष्कार को और नया अविष्कार प्रगति का परिचायक होता है पर जब रेल मजदूर सीलन और फंगस की बदबू से भरे घरों में जी रहा हो। डॉक्टर विहीन अस्पताल जो उंगली पर गिने जा सकने वाली परंपरागत दवाईओं के बल पर तथा जीवित इंसानों की जान बचाने का असफल प्रयास करती अर्धमूर्छित अवस्था में पड़ी आधी अधूरी मशीनें, कार्यस्थलों पर उपलब्ध संग्रहालय में रखे जा सकने वाले अनादिकाल के बिना एक्युरेसी (दक्षता) के औजार, कबाड़ से भरे दड़बे जैसे, टूटे फर्नीचर से युक्त कार्यालय, कैसे मस्तिष्क को क्रियाशील तथा शरीर को ऊर्जावान बनाए रख सकते हैं? जबकि उन्हीं कार्यस्थलों पर रेलवे की अनुकंपा से अपनी रोजी चलाने वाली कंपनियों के बने वातानुकूलित कार्यालय जिनमें उनके कर्मचारी बेहद सुखद माहौल में अपना कार्य कर रहे हैं। क्या ये परिस्थितियां हमारे मजदूर भाईयों का मनाबल नहीं गिराती? डिजिटल युग में जहां करोड़ों रुपए इधर से उधर घर बैठे-बैठे ही भेजे जा सकते हों वहां कर्मचारी को एक-एक बात के लिए साल में 10 बार अपने पेपर प्रूफ हर जगह व्यक्तिगत रूप से देने पड़ते हों जबकि हर टेबिल पर वे सब रिकार्ड मौजूद हों। कैसे कह दें कि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं? क्या ये सब कुछ नवीनता मजदूरों के लिए परियों की कहानी की तरह है? 80 से 120 डेसिबल के शोर में आग से तपते डीज़ल तथा बिजली के इंजन, और पसीने से सराबोर, कुक विहीन रनिंग रूम में बेयरर के द्वारा बनाई कच्ची या जली रोटियां खाकर बिना पर्याप्त विश्राम के तथा 30 से 42 प्रतिशत की वेकेंसी के चलते असीमित घंटों तक कार्य करने को मजबूर चालक। कितने भी सेफ्टी सर्कुलर निकाल लें दुर्घटना तो साथ में ही चल रही होती है यदि सुरक्षित गंतव्य आ गया तो भगवान का धन्यवाद।
कुछ लाख रुपए मेंटेनेंस के नाम पर तनख्वाह न देने की कृपणता के चलते पुखराया जैसी दुर्घटनाएं तो झेलनी ही पड़ेंगी उन्हें कोई रोक नहीं सकता चाहे पेपर पर सेफ्टी ड्राइव के कितने भी घोड़े दौड़ा लें। जाने और कितने विषय हैं जिन पर गंभीर विचार आवश्यक हैं।

अब समय आ गया है कि ट्रेड यूनियन को शाब्दिक तौर पर नहीं बल्कि वास्तविक तौर पर प्रबंधन में भागीदारी प्रदान की जाए।

• यदि किसी विभाग में १०’ से ज्यादा वेकेंसी है तो ट्रेड युनियन प्रशासन को चेताए, यदि ६ माह में इस समस्या को हल करने की शुरुआत न की गई और १ वर्ष में नियुक्तियां न की गई तो ट्रेड युनियनें प्रस्तावित मानदंडों के तहत उन रिक्तियों पर कर्मचारी नियुक्त कर सके।
• यदि किसी जगह संरक्षा से खिलवाड़ किया जा रहा है तो प्रशासन को ट्रेड युनियन चेताए और सकारात्मक कदम न उठते देश संवैधानिक अधिकार के तहत उस समस्या का हल अपने अधिकार में ढूंढ ले जिसकी संपूर्ण आर्थिक जिम्मेदारी प्रशासन वहन करेगी।
• रेलवे आवासों की मरम्मत, उन्हीं से प्राप्त होने वाले हाउस रेंट (जो एचआरए उस व्यक्ति को नहीं दिया जाता है) अपने अधिकारों का प्रयोग कर ट्रेड युनियन सीधे मरम्मत करवा सके।
• अस्पतालों में डॉक्टर, स्टाफ, दवाएं, अत्याधुनिक उपकरण १ वर्ष की सीमा में प्रशासन द्वारा उपलब्ध न करवाए जाने की स्थित में ट्रेड युनियन स्वयं इसकी जिम्मेदारी ले जिसकी आर्थिक भरपाई प्रशासन को करनी होगी।
• इसी तरह कार्यस्थलों के माहौल को बदलने में, रेलवे स्कूलों को कोमा से बाहर निकालने में, रनिंग रूमों को सुधारने में इत्यादि सभी क्षेत्रों में ट्रेड युनियन को सीधे-सीधे प्रबंधन में भागीदारी प्रदान की जाए तो देखिए कैसे चमत्कारी रूप से सब कुछ अपने आप बिना आपके प्रयास के ही ठीक होने लग जाएगा।

ट्रेड यूनियनों को अब समन्वय से चलने का अर्थ झेलना नहीं स्वयं करने लगना, के अधिकार हासिल करने का समय आ गया है। ट्रेड यूनियनों को इधर-उधर की दलदल को साधने के चक्कर में अपने अस्तित्व को क्षीण करने की जगह, प्रशासन को चेताना होगा कि मंथरा का रोल त्यागकर भरत का रोल निभाएं। जिससे दलदल को सुखाकर ट्रेड युनियन के साथ मिलकर एक सुंदर उपवन तैयार किया जा सके। यही सच्ची राष्ट्रभक्ति होगी और यही सच्ची मानव सेवा, इससे ही देश तथा रेल की प्रगति संभव है। कोरी कल्पनाएं वास्तविकता के धरातल पर कभी खरी नहीं उतरतीं।

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