रोमांचित कर देने वाला सफर, हाइट जानकर बढ़ जाती हैं धड़कनें

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रहस्य और रोमांच दोनों है यहां…

बिलासपुर से कटनी (एमपी) को जोड़ने वाली रेललाइन पर है भनवारटंक। कुदरत ने भनवारटंक को गजब की खूबसूरती बख्शी है। अंग्रेजों ने करीब 109 साल पहले 1907 में यहां टनल (सुरंग) बनवाई थी। टनल के मुहाने पर 115 फीट ऊंचा और 425 फीट लंबा पुल ट्रेनों में सवार यात्रियों को रोमांचित कर देता है। लेकिन जब ऊंचाई का अंदाजा होता है तो धड़कनें तेज हो जाती हैं।

1 नवंबर को छत्तीसगढ़ का 17वां स्थापना दिवस है। इस मौके पर हम भनवारटंक के बारे में बता रहे हैं जिसका उसकी खूबसूरती के मुताबिक प्रचार नहीं हो पाया, वरना वह बहुत बड़ा टूरिस्ट स्पॉट बन सकता है।खोंगसराखोड़रीभनवारटंक रेलवे स्टेशन के बीच साल पेड़ों के घने जंगल, पहाड़ और घाटियों के बीच बिछी रेल पटरियों से गुजरकर ट्रेन टनल व पुल तक पहुंचती है। पेंड्रा से इसकी दूरी 15 किलोमीटर है।यात्री यह सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि आखिर 108 साल पहले किस तकनीक से यह टनल और 115 साल पहले पुल बनवाए गए होंगे।प्रकृति के बीच इस मनमोहक रेल मार्ग को बिलासपुर जोन ने अब तक पर्यटन के लिहाज से विकसित क्यों नहीं करवाया, यह सवाल भी उठता है।
अंग्रेजों का बनाया हुआ है ब्रिज, टनल और ट्रैक

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एक्सपर्ट बताते हैं कि टनल बनाने के पीछे अंग्रेजों का उद्देश्य इसके जरिए माल ढुलाई करना और रेल यातायात को सुगम बनाना था।टनल और पुल की लंबाईचौड़ाई आज भी सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में एक चैलेंज जैसा है।खुशनुमा बात ये है कि इतने सालों में पुल और टनल में कभी कोई जानमाल नुकसान नहीं पहुंचा है।भनवारटंक पहुंचने के लिए रेल ही एकमात्र साधन है। यह लाइन पेंड्रा होते हुए कटनी पहुंचती है।

भनवारटंक टनटल में काम करते रेलकर्मी।                      पुल से गुजरती ट्रेन की ऊपर से ली हुई फोटो                

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चूना, बेल और गोंद जुड़ी हैं ईंटें

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एक सदी से भी ज्यादा पहले बिलासपुर को गौरेलापेंड्रा क्षेत्र से जोड़ने के लिए बनवाए इस ब्रिज में ब्रिटिश शासकों ने जिस तकनीक का इस्तेमाल किया, उससे यह आज भी बेजोड़ है।भनवारटंक रेलवे स्टेशन के बाद दो पहाड़ों के बीच की 115 फीट की गहराई पर पुल बनाने पिलर खड़े करना आसान नहीं था।दोनों पहाड़ों के बीच निचले सिरे में गहराई सॉसर की तरह थी, इसलिए तीन पिलरों में से बीचोंबीच वाला एक बड़ा 115 फीट की ऊंचाई का बनाया गया है।तीनों के बीच 100-100 फीट की दूरी है। इसके दोनों ओर के पिलर्स की ऊंचाई थोड़ी कम है। पुल के तीनों पिलर्स पक्की ईंटों वाले चूने, बेल और गोंद से बनाए गए गारे से जुड़े हैं।रेलवे के रिकाॅर्ड्स के मुताबिक बिलासपुर जोन में इस तकनीक वाले करीब एक दर्जन पुल होंगे, लेकिन इतनी ऊंचाई वाला या इतना पुराना एक भी नहीं।

घोड़े की नाल जैसा कर्व है टनल
page-2ब्रिज बनाने के साथ उससे आगे 1907 में पहाड़ी खोदकर टनल बनाने का काम शुरू किया गया।बीहड़ जंगल में इंजीनि‍यरिंग की यह तकनीक अनूठी मानी जा सकती है।टनल की डिजाइनिंग 7 डिग्री कर्व लिए हुए है। 334 मीटर लंबी टनल भी अनोखी है।घोड़े की नाल के आकार वाली टनल की दीवार भी ईंट और गारे की जुड़ाई वाली है।एकएक मीटर की खुदाई कर लोहे के एंगल लगाए गए, साथसाथ ईंटें जोड़कर मजबूती दी गई।टनल का कर्व एरिया 212 मीटर और सीधा हिस्सा 122 मीटर है। इस तरह कुल लंबाई 334 मीटर हो गई।
1994 में बदले गए थे स्लीपर
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भनवारटंक टनल के अंदरूनी हिस्से में ट्रैक बिछाने के लिए गिट्टी और लकड़ियों के स्लीपर लगाए गए थे।ट्रैक मेंटेनेंस में परेशानी को देखते हुए 1994 में इसमें बदलाव किया गया।ब्लॉस्टलैस तकनीक यानी की काॅन्क्रीट की ढलाई पर स्लीपर बिछाए गए। इससे ट्रैक की हाइट भी कुछ बढ़ गई।

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