डॉ. आर.पी. भटनागर,
आज की इस भाग-दौड़ की जिंदगी, में देश की समस्त जनता एक सीमित दायरे में बंधकर रह गई है। धनाढ्य लोग वैभव-विलास और धन की लोलुपता में फंसे हुए हैं। मध्यम वर्ग अपने आर्थिक स्तर को बढ़ाने की लालसा में फंसा हुआ है और निम्नवर्ग दो जून की रोटी की चिंता के भंवर में फंसा हुआ है। सोच का दायरा संकुचित होता जा रहा है। संयुक्त परिवार से एकाकी परिवार बने और अब तो मोबाइल और अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर थिरकती हुई ऊंगलियों ने परिवार शब्द की परिभाषा ही बदल दी है। संस्कार, सभ्यता, देशप्रेम, मानवता सभी तुप्त प्राय: होते जा रहे हैं। मातृभूमि पर जान न्यौछावर करने वाले सिर्फ इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह गए हैं। वो महामानव डॉ. बाबा साहब अंबेडकर जिन्होंने शोषण का प्रतिकार करने में अपने स्वार्थों की आहूति दी, वो अमर शहीद भगत सिंह जिन्होंने देश की खातिर मात्र 23 वर्ष की उम्र में अपने प्राणों तक की बाजी लगा दी, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, अश्फाक उल्लाखान, बाल गंगाधर तिलक जैसी अनेक महान विभूतियां अपने लिए नहीं बल्कि अपने राष्ट्र के लिए जिंए। मानवता को सर्वोपरि माना, मातृभूमि का सम्मान किया, राष्ट्रहित के लिए हर पल सोचा। तिरंगे की आन, बान और शान के लिए उन्होंने अपना सर्वत्र कुर्बान कर दिया। भारत का इतिहास गौरवपूर्ण है। यहां महारानी लक्ष्मी बाई जैसी वीरांगना और छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे वीर योद्धाओं ने जन्म लिया है। परंतु गौरवशाली इतिहास पढऩे से ही राष्ट्र का भला नहीं हो सकता। आज देश के अमर सपूतों द्वारा दिखाए गए मार्ग और उनके जज्बे को अपनाकर इतिहास रचने की आवश्यकता आन पड़ी है। मेक-इन-इंडिया का दिवस्वप्न दिखाकर जो वर्तमान उत्सादन ईकाइयां हैं उन्हें बंद किया जा रहा है। एफडीआई के माध्यम से देश को विदेशी कंपनियों के हाथों गिरवी रखने की साजिश रची जा रही है। आऊटसोर्सिंग, निजीकरण और ठेकेदारीकरण के जहरीले तीर चलाकर गरीब मजदूरों के हितों का गला काटकर उनके सीने को छलनी किया जा रहा है। सरकारी उपक्रमों को बंदकर कामगारों के हितों पर कुठाराघात किया जा रहा है।
हाल ही में मुंबई स्थित लोको वर्कशॉप परेल को बंद करने का प्रस्ताव उसी कड़ी का एक हिस्सा है। बिना सोचे समझे इस तरह का एकतरफा निर्णय निश्चित ही रेलमंत्री की बीमार मानसिकता को दर्शाता है। क्या यही मेक-इन-इंडिया की असली तस्वीर है? सदाबहार बाग को उजाडऩा एक निहायत घिनौना कृत्य नहीं तो और क्या है?
सवाल यह उठता है कि इस तरह के कांतिक काल में सेंट्रल रेलवे मजदूर संघ को छोडक़र बड़ी-बड़ी बातें करने वाले अन्य संगठन तमाशबीन बनकर चुप्पी साधे क्यों बैठे हैं? छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस स्थित जीएम बिल्डिंग को संग्रहालय में परिवर्तित करने का षड्यंत्र हुआ और वहां भी सिर्फ सीआरएमएस ने आवाज उठाई। क्या स्वार्थ साधना में अन्य सभी संगठन इतने लीन हो गए हैं कि उन्हें कामगारों के हितों से कोई लेना-देना ही नहीं रह गया? जहां एक ओर सीआरएमएस के कार्यकर्ता सिर पर कफन बांध के परेल वर्कशॉप को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर क्या अन्य संगठनों का नेतृत्व अपना स्वाभिमान बेचकर प्रशासन और सरकार की गोद में सिर रखकर अपना स्वार्थ साधने में लगा हुआ है? यह चर्चा का विषय है। देश और कामगारों का हित इसी में है कि एक जागरुक नागरिक की तरह अपने निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर सभी एक स्वर में सरकार की मजदूर विरोधी और पीछे धकेलने वाली नीतियों के खिलाफ युद्ध का शंखनाद करें, वरना आने वाली पीढ़ी उन्हें कभी माफ नहीं करेगी।