रेल की जनरल बोगी बना नरक, प्रशासन मौन क्यों!

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आज जनरल बोगी का नाम सुनते ही भारतीय जनता के शरीर में एक झुरझुरी पैदा हो जाती है। आज से चालीस साल पहले जब बनारस से बंबई के लिए चलने वाली महानगरी एक्सप्रेस के जनरल बोगी में यात्री खिड़कीवाली सिंगल सीट पर बैठकर जाता था तो इतनी सुखद अनुभूति होती थी जो कि बताना मुश्किल है। उस जनरल बोगी में जितनी सीटें थीं उससे कुछ कम ही लोग बैठे होंगे और पंखे, बल्ब, टॉयलेट, वाश बेसिन आदि सबकुछ लगभग ठीकठाक थे।

जहां गाड़ी रुकती वहां उतरकर बोतल में पानी भर लेते और ताजे स्वादिष्ट गरमा-गरम भजिया-समोसे खा लेते। परंतु इन चालीस वर्षों में क्या हो गया रेलवे को, क्या लूट बेईमानी और असंतोष भर गए इन हॉकरों में कहां से पलायन आ गया उत्तर और पूर्वोत्तर भारतीयों में जो आज दसगुना गाडिय़ा होने के बावजूद जानवरों की तरह जनरल बोगी में यात्रा कर रहे हैं या करने के लिए मजबूर हो गए हैं। आज बुलेट ट्रेन की सोच के सामने जनरल बोगी बौनी हो गई है। मालगाड़ी में भी जानवरों को लादने के लिए संख्या निर्धारित की गई है जिससे ज्यादा मवेशी नहीं लाद सकते परंतु इंसानों की स्थिति इन मवेशियों से भी बदतर हो चुकी है। रही बात दो दिनों तक इनके खाने-पीने और नित्य क्रिया से निपटने की तो इसके बारे यदि कुछ न सोचा जाए तो शायद बेहतर होगा। वातानुकूलित बोगी में थोड़ी राहत है यहां के यात्री वेंडर को ज्यादा पैसे देकर या ऑन लाइन ऑर्डर करके अच्छा खाना मंगवा लेते हैं और कुछ इसी तरह स्लीपर के यात्री भी अपनी व्यवस्था कर लेते हैं और यही कारण है कि किसी भी छोटे-बड़े रेलवे स्टेशनों पर जब गाडी रुकती है तो सारे अनाधिकृत हॉकर जनरल बोगी के आसपास ही मंडराते रहते हैं। बाकी पूरी गाड़ी में कहीं नहीं जाते क्योंकि सारे सड़े-गले खाने पीने के सामान यहीं बिकता है।

दूसरा कारण आज तक कभी जनरल बोगी के सामने खाद्य सामग्री बेचनेवाले की चेकिंग नहीं हुई है। कभी इस बात की जांच नहीं हुई है कि हॉकर लाइसेंस वाला है या अनधिकृत और बड़ी शर्मनाक बात है कि ऐसे कई स्टेशनों पर उस प्लेटफार्म के पानी नल के कनेक्शन उतने समय के लिए बंद कर दिया जाता है जितने समय तक वहां गाड़ी खड़ी रहती है ताकि बोतलबंद पानी का धंधा फले-फूले। ये बोतल भी कचरे से उठाए गए होते हैं तथा पानी के बारे में तो ईश्वर ही मालिक है। किसी जमाने में इगतपुरी का वड़ापाव और भजिया खाने के लिए लोग दौडकर कैंटीन के पास जाते थे। केला खरीदने के लिए यात्री भुसावल में टूट पड़ते थे। परंतु आज वही इगतपुरी और भुसावल सड़े हुए वड़ापाव और केले के लिए कुख्यात हो गया है। क्या इस बदनामी की भनक रेल प्रशासन को अभी तक नहीं है? यदि इसका जवाब ‘नहींÓ में है तो रेल प्रशासन की संप्रेषण और सूचना तंत्र अपाहिज है और यदि जवाब ‘हांÓ में है तो इसका मतलब है कि इन बेईमानों की पहुँच दिल्ली दरबार तक है। अब देखना यह है कि ये सारी व्यवस्था बुलेट प्रणाली के साथ एडजस्ट कर पाएगी या नहीं।

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