खोदा पहाड़ निकली चुहिया… (मजदूर की कलम से…)

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आशीष निगम, माटुंगा

सातवां वेतन आयोग आया पता ही नहीं चला कब आया और कब चला गया। पिछले एक साल से इसी आस में थे कि एचआरए में बढ़ोत्तरी होगी, एरियर्स के साथ मिलेगा। पूरे परिवार के साथ मैंने भी सपने संजोए थे। बूढ़ी माँ के लिए अच्छा सा चश्मा बनावाऊंगा, एक साड़ी ला कर दूंगा, छोटे भाई की पढ़ाई के लिए माँ के गिरवी रखे गहने छुडवाऊंगा। भाई को एक साइकिल दिलवाऊंगा। कुछ पैसा बचेगा तो अपने लिए कपड़े सिलवाउंगा। एक अच्छा सा मोबाइल लूंगा। और न जाने क्या-क्या सपने संजोए थे। परंतु 28 जून को जब लंबे समय के बाद माननीय प्रधानमंत्रीजी और वित्त मंत्री जी को जब विदेशी सैर-सपाटे से फुर्सत मिली तो जो कुछ उन्होंने मंजूर किया उससे मेरे सारे सपने धराशायी हो गए।
चश्मा टूट गया, साड़ी तार-तार हो गई, गिरवी रखे गहने मां से दूर हो गए, भाई की साइकिल पंचर हो गई। मैं अपनी जान की परवाह न कर पूरी निष्ठा के साथ अपनी ड्युटी निभाने वाला रेलकर्मी फटेहाल था और फटेहाल ही रह गया। काश मैं भी ए.पी. या एम.एल.ए. होता। मुझे भी मात्र 25/- रुपए में स्वादिष्ट व्यंजन परोसने वाली सरकारी कैंटीन का सुख मिलता। हाथ ऊपर करने मात्र से मेरे भी भत्ते बढ़ जाते, कोई कमेटी नहीं बैठाई जाती। रेलकर्मी तो हाथ जोडक़र सेवा करते हैं, काम करते वक्त हाथों में छाले पड़ जाते हैं फिर भी हमारी जायज मांगें नहीं मानी जाती। यह कैसा इंसाफ है प्रभु! हमारे साथ हमेशा सौतेला व्यवहार क्यों किया जाता है। क्यों हमारे रेल आवासों की छत से पानी टपकता है? क्यों हमारी आंखो से खून के आंसू गिरते हैं? हमें मिलने वाली मेडिकल सुविधाएं क्यों एक भीख की तरह नजर आतीं हैं? क्यों हमारा ट्रैकमैन साथी आए दिन रन ओवर का शिकार हो जाता है? मेरी सभी से यह गुजारिश है कि हम रेलकर्मियों को भी इंसान समझा जाए। हमें भी स्वाभिमान और इज्जत से रहने का अधिकार है। धिक्कार है ऐसे संगठन पर जो सरकार के हिटलरशाही भरे निर्णय का स्वागत कर रहा है।
मुझे गर्व है एनएफआईआर / सीआरएमएस पर जिसने सरकार द्वारा भत्तों के संबंध में लिए गए निर्णय की कड़े शब्दों में भत्र्सना की है। एच.आर.ए. का एरियर्स मिलना ही चाहिए।

 

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