अकेला था, अकेला हूँ, अकेला ही मरूँगा मैं !
नहीं डरता हूँ , दुनियाँ से ,तो तुम से क्या डरूंगा मैं !!
मिटा दो मेरी हस्ती को, अगर तुम में जो हिम्मत हो,
तुम्हारी शर्त के आगे, नहीं हरगिज़ झुकूँगा में,,
जिसे महफूज़, रखती है हवा ,फ़ानूस में छिप कर,
चरागे वो अक़ीदत हूँ , सवेरे तक जलूँगा में,,
कोई तूफ़ान से कह दे ,डगर वो दूसरी चुन ले ,
लुटा कर रौशनी शब् भर,सहर ही में बुझूँगा मैं,,
ये आँसूँ पौंछ दो, आँसूँ मुझे, अच्छे नहीं लगते,
ज़हर मिस्कीन का ता-उम्र,जी भर के पीऊँगा मैं,,
अधूरा मैं नहीं छोड़ूँगा, अपना काम कोई भी ,
मिटा ख़ाक़ में, उनको ही अर्थी पर चढ़ूँगा मैं ,,
नहीं तनहा ही, छोड़ूँगा, कज़़ा के बाद भी तुमको,
तेरे महके हूऐ खा़बों सा, ही महका करूँगा मैं,,
नहीं तुमको दिखाई दूंगा मैं , ये गौर से सुन लो,
इन्हीं रंगी फज़़ाओं मैं सदा चहका करूँगा मैं,,
नहीं बदला अभी तक जो, करेगा वो बदल कर क्या,
कि पागल था, मैं पागल हूँ ,कि पागल ही, रहूँगा मैं,,
सुनाओगे तराने, गर दिले बे -ज़ार “वाहिद” के
तेरी महफि़ल में आकर के, गज़़ल तेरी सुनूँगा मैं,,