संपादकीय
डॉ. आर.पी. भटनागर
रेलवे और डिफेंस दो ऐसे महकमें हैं जो की सुरक्षा की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण हैं। देश की सीमाओं पर तैनात भारत के जांबाज सैनिकों की वीरगति की सूचना मिलते ही समूचे देशवासी रोषित हो जाते हैं। इसी तरह से भारतीय रेल शरीर में रक्त का संचार करने वाली धमनियों की तरह है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लाखों लोगों को जीविका प्रदान करती है। इसीलिए इसे लाइफलाइन कहा जाता है। जरा सी भी रुकावट होने पर पूरा देश मानो ठहर सा जाता है। युद्ध के समय सेना और सैन्य साजोसामान पहुंचाने का काम भी भारतीय रेल ही करती है। सरकार ऐसे महत्वपूर्ण महकमों को कभी एफडीआई के जरिए, कभी पीपीपी को माध्यम बनाकर निजी हाथों में सौंपने की घिनौनी साजिश रच रही है। अभी हाल ही में कैबनेट ने २३ रेलवे स्टेशनों को ४५ वर्षों के लिए लीज पर देने को मंजूरी दे दी है। इस अवधि को और बढ़ाने की भी चर्चा है। निजी कंपनियां मनमाने ढंग से रेलवे की भूमि एवं आसमानी क्षेत्र का इस्तेमाल करेंगी। इसी कड़ी में ४०० से भी अधिक स्टेशनों को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी की जा रही है। रेलवे के नियमित कार्यों का भी निजीकरण, ठेकेदारीकरण एवं आऊटसोर्सिंग किया जा रहा है। यह न तो कर्मचारियों के हित में है, न आम जनता के हित में है। यह देश की सुरक्षा से खिलवाड़ है। रेलवे की सैकड़ों एकड़ भूमि ऐसी है जिसे कभी किसी जमाने में लीज पर दिया था जिसे आज तक रेलवे वापिस नहीं ले पाई है। इसमें दादर, माटुंगा जैसे क्षेत्र भी शामिल हैं। जब बीएआरसी और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान जैसे सरकारी महकमें बिना निजीकरण के प्रगति के नए-नए आयाम तय कर संपूर्ण विश्व में अपनी धाक जमा सकते हैं तो भारतीय रेलवे को विश्वस्तरीय बनाने के लिए निजीकरण की आवश्यकता क्यों आन पड़ी है। निजी कंपनियां सिर्फ अपना स्वार्थ ही सिद्ध करेंगी। इसमें कोई दो राय नहीं है। उन्हें सामाजिक दायित्वों को निभाने में कोई दिलचस्पी नहीं होती। इसके अलावा यह कंपनियां गरीब मजदूरों का दोहन करने की सारी हदें पार कर देती है। न्यूनतम मजदूरी तक उन्हें नहीं देतीं। यह समझ से परे है कि वर्तमान सरकार के प्रतिनिधि जिन पर देश की गरीब जनता ने विश्वास किया, उन्हें चुन कर लाए वही सत्ता के नशे में चूर होकर करोड़ों देशवासियों के हितों को दरकिनार कैसे कर सकते हैं। मजदूर विरोधी नीतियां बनाकर चंद धनाढ्य लोगों को सोने की थाली में पकवान परोसे जा रहे हैं और गरीब जनता, गरीब किसानों और आम जनता को दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो रहा है। सरकारी कर्मचारियों को देने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है वहीं दूसरी ओर बड़ी-बड़ी कंपनियों के कर्ज माफ किए जा रहे हैं। अकूत धनराशि लेकर लोगों को देश के बाहर भेज दिया जाता है।
सरकार को अपनी सोच बदलनी होगी। रेलवे और डिफेंस क्षेत्रों को निजी हाथों में सौंपना देश की प्रभुसत्ता पर सवालिया निशान लग सकता है। समझदारी इसी में है कि सरकार निजीकरण का रास्ता छोडक़र मानव संसाधनों का समुचित उपयोग कर देश की पगति करे।