बड़े अरमानों से शुरू हुई रेलवे की रोल ऑन-रोल ऑफ परियोजना एक माह भी चल क्यों नहीं पाई?

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इस परियोजना का लक्ष्य दिल्ली होकर दूसरे राज्यों में जाने वाले हजारों ट्रकों को दिल्ली आने से रोकना था ताकि यहां के ट्रैफिक जाम और प्रदूषण में कमी की जा सके बड़े अरमानों से शुरू हुई रेलवे की रोल ऑन-रोल ऑफ परियोजना एक माह भी चल क्यों नहीं पाई? इसी साल दो मार्च को रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) के लिए ‘रोल ऑन, रोल ऑफ’ (रो-रो) परियोजना का शुभारंभ किया था. इसका लक्ष्य दिल्ली होकर दूसरे राज्यों में जाने वाले हजारों ट्रकों को दिल्ली आने से रोकना था ताकि सडक़ों पर जाम और प्रदूषण में कमी की जा सके. लेकिन कई समस्याओं के चलते यह महत्वाकांक्षी परियोजना जल्द ही ढेर हो गई.

इसके तहत व्यवस्था की गई थी कि पंजाब और हरियाणा से सोनीपत के रास्ते दिल्ली होते हुए उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा जैसे राज्यों में जाने वाले ट्रकों को दिल्ली से बाहर ही रोक दिया जाए. उसके बाद इन ट्रकों को वहां मालगाड़ी पर लादकर दिल्ली से बाहर तक पहुंचाया जाता था. वहां से आगे का रास्ता वे सडक़ मार्ग से तय कर सकते थे. सुरेश प्रभु ने परियोजना को हरियाणा के गुरुग्राम से शुरू किया था. पहली खेप में वहां से 30 ट्रक लादकर उत्तर प्रदेश के मुरादनगर पहुंचाए गए.

एनसीआर में कुल 127 प्रवेश या निकासी स्थल हैं. इनमें नौ सबसे व्यस्त हैं, जहां से तीन चौथाई ट्रक गुजरते हैं. रेलवे के एक अनुमान के अनुसार दिल्ली में रोज लगभग 66 हजार हल्के या भारी ट्रक प्रवेश करते हैं. इनमें से लगभग 20 हजार ट्रकों का लक्ष्य दिल्ली नहीं होता है.

पर्यावरण का अध्ययन करने वाली संस्था सेंटर फॉर साइंस ऐंड इनवायरमेंट के एक अध्ययन में दिल्ली होकर दूसरे राज्यों में जाने वाले ट्रकों से फैलने वाले प्रदूषण के बारे में बताया गया है. अध्ययन के अनुसार ऐसे ट्रकों का दिल्ली के कुल नाइट्रोजन ऑक्साइड उत्सर्जन में 22 फीसदी और पार्टिकुलेट मैटर उत्सर्जन में 30 फीसदी का योगदान होता है. जाहिर है इस प्रयास से दिल्ली के प्रदूषण स्तर में भारी कमी होनी थी. इस नई व्यवस्था से ट्रक मालिकों को भी काफी फायदा होना था. इससे एक तो उनका दिल्ली पार करने में होने वाला ईंधन बचना था. हालांकि यह उतना नहीं था कि अकेले ही ट्रक मालिकों को इस योजना के प्रति आकर्षित कर सकता. क्योंकि ट्रक मालगाड़ी पर लादकर पहुंचाने के लिए उन्हें रेलवे को भी पैसा देना था. ट्रक मालिकों की असली बचत दिल्ली में अदा किए जाने वाले ग्रीन टैक्स के बचने से होती. दिल्ली की सीमा में आने पर सभी छोटे-बड़े ट्रक या अन्य वाणिज्यिक वाहनों को ग्रीन टैक्स के रूप में एक मोटी रकम चुकानी पड़ती है.

ट्रक मालिकों को सबसे बड़ी समस्या दिल्ली के ‘नो एंट्री’ के नियम से होती है. यहां की सडक़ों पर हर वक्त ट्रकों को नहीं चलाया जा सकता. ट्रकों को दिल्ली से गुजरने के लिए अक्सर इसके बाहर घंटों इंतजार करना पड़ता है. इससे उन्हें खासा आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता है यदि रेलवे की यह\

परियोजना सही ढंग से चलती तो ट्रक मालिकों और इन्हें चलाने वालों की इन सारी समस्याओं का समाधान भी हो जाता. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बड़े अरमानों के साथ शुरू हुई यह परियोजना ठीक से महीने भर भी नहीं चल पाई. रेल मंत्रालय के सूत्रों की मानें तो इस परियोजना की परिकल्पना से लेकर क्रियान्वयन तक इसमें मोजूद रहीं अनेक खामियों के चलते इसे रोकना पड़ गया. इसकी सबसे बड़ी गलती तो यही रही कि रेलवे के अधिकारियों ने इसे शुरू करने से पहले ठीक से जमीनी सर्वेक्षण तक नहीं किया. इस परियोजना के तुरंत बंद हो जाने की वजह यह बताई जा रही है कि मालगाड़ी और बिजली के तारों के बीच की दूरी इसके मुताबिक नहीं है. ट्रक जब मालगाड़ी पर लादे जाने लगे तब अधिकारियों को इस बात का अंदाजा हुआ. अब तारों और ट्रैक की दूरी तो बढ़ाई नहीं जा सकती. सरकार यदि ऐसा करना भी चाहे तो उसे कई तकनीकी समस्याओं से जूझना पड़ेगा और इसमें  कई साल लग सकते ह

ऐसे में तय हुआ कि मालगाड़ी पर केवल छोटे ट्रकों को ही लादा जाए. जो ट्रक लादे जा सकते थे, उसकी अधिकतम ऊंचाई 3.2 मीटर तय की गई. तकरीबन दो हफ्ते तक ऐसा ही हुआ. लेकिन उनकी संख्या उतनी नहीं थी जितनी इस योजना को सही से चलाने के लिए पर्याप्त होती. रेलवे अधिकारियों की परेशानी यह थी कि उन्होंने कुछ ही दिनों में इस सेवा से 20 हजार ट्रकों की रोज ढुलाई करने का लक्ष्य तय किया था. लेकिन उनकी सारी योजना धरी रह गई. थक-हारकर परियोजना से जुड़े अधिकारियों ने रेल मंत्रालय को एक रिपोर्ट भेजी. इसमें कहा गया कि तकनीकी वजहों से अभी यह सेवा चलाना संभव नहीं है, इसलिए इसे बंद करने की अनुमति दी जाए. इसके बाद इस सेवा को बंद कर दिया गया. इस परियोजना से जुड़े रहे रेलवे अधिकारियों का दावा है कि इसे जल्द ही दोबारा शुरू किया जाएगा. लेकिन मंत्रालय के ही अन्य लोग बताते हैं कि कम से कम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इसके दोबारा शुरू होने की संभावना काफी कम है. इस क्षेत्र में बिजली के तारों की ऊंचाई बाकी क्षेत्रों से काफी कम इसलिए भी है कि यहां रेल पटरियों के ऊपर से गुजरने वाले पुलों की संख्या काफी ज्यादा हैं. ऐसे में नहीं लगता कि बहुत जल्द इस तकनीकी समस्या का समाधान मिल जाएगा. रेलवे की रो-रो परियोजना के इस हाल ने पिछले साल शुरू हुई गतिमान एक्सप्रेस परियोजना की यादें ताजा करा दी हैं. वह परियोजना भी ऐसी ही अनेक तकनीकी खामियों का शिकार हुई थी

 

 

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