खालील अहमद
खलासी, सीनियर सैक्शन इन्जीनियर, (कार्य) दादर,
मध्य रेल मुंबई,
किसी जमानें में आईओडब्ल्यू जिसे अब एसएसई वक्र्स कहा जाता है के अधीन १०० से १५० तक स्टाफ कार्यरत रहता था। रेलवे आवासों में रहने वाले रेलकर्मियों के अच्छे दिन थे। उनके क्वार्टरों की मरम्मत रख रखाव आसानी से हो जाता था। स्टाफ के भी अच्छे दिन थे। उत्त्म दर्जे का कार्य करते थे, मैटेरियल उपलब्ध होता था, कार्य का अतिरिक्त बोझ नहीं होता था। धीरे-धीरे स्टाफ की संख्या सिकुड़ती चलती गई, कार्य कम नहीं हुआ। क्वार्टरों की संख्या बढ़ी नहीं तो कम भी नहीं हुई। स्टेशनों की संख्या बढ़ती गई। कुछ काम कॉन्ट्रेक्ट पर भी दिया गया परंतु उसमें भ्रष्टाचार का तडक़ा लगा और गुणवत्ता खून के आंसू रोने लगी। ऐसी स्थिति मे मौजूदा स्टाफ की रहवासियों के कोप का भाजन होना स्वाभाविक ही है। एक ओर हमें मटेरियल नहीं मिलता। सीमेंट स्टाक में रहता ही नहीं है, लकड़ी नहीं मिलती, औजार अपनी किस्मत पर रोते हैं, नए औजार नहीं मिलते। वहीं दूसरी ओर स्टाफ की कमी के कारण काम का अतिरिक्त बोझ। सुरक्षा उपकरण तक नहीं मिलते। दो-तीन वर्षों में गटर को साफ करते वक्त हमारे साथी जहरीली गैस से दम घुटने के कारण अकाल मृत्यु का ग्रास बन गए। माटुंगा वर्कशॉप में हुआ हादसा आज भी रूह कंपा देता है। रेल आवासों में रहने वाले कर्मचारी आए दिन कभी हमारे साहब पर कभी हम पर अपनी भड़ास निकालते हैं। प्लास्टर उखड़ रहा है, छतों से पानी चू रहा है, दरवाजे-खिड़कियां उखड़े पड़े हैं, गटर चोक-अप है, और न जाने क्या-क्या? दुख होता है मगर हम भी क्या करें। प्रशासन को कुछ पड़ी ही नहीं है। फंड नहीं है का बहाना बना वह अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेता है। हमें छुट्टी तक नहीं मिल पाती। यह बात मेरी समझ से परे है कि एक बड़ी धनराशि एचआरए के रूप में कर्मचारी की पगार से काटी जाती है तो फिर रेल आवासों की मरम्मत में धन का अभाव क्यों? मेरी यही गुहार है कि इंजीनियरिंग विभाग के हम कामगारों की दुष्वारियों को दूर किया जाए।