भोपाल को झीलों की नगरी कहा जाता है यह पश्चिम मध्य रेल का एक बड़ा रेलवे स्टेशन है जहां अनेक बड़े अधिकारी बैठते हैं। जब हमने भोपाल अस्पताल का निरीक्षण किया तो पाया कि वहां डॉक्टरों का जबरदस्त अभाव था। कोई स्पेस्लिस्ट डॉक्टर नहीं था। इंजेक्शन रूम में इंजेक्शन रखने की उचित जगह नहीं थी। फारमेसिस्ट का वितरण कमरा भी ठीक से नहीं बना है जहां दवाईयां सही तरह से हों। विंडो सात हैं और फारमेसिस्ट पांच। आईसीयू में पर्याप्त मशीनें नहीं है। आईसीयू जैसा लगता ही नहीं है। ऑप्रेशन थियटर भी आज की जरूरत के हिसाब से नहीं है। पैरा मेडिकल स्टाफ अच्छा है। सिविल वर्क जहां-जहां जरूरत है लगभग न के बराबर है। गाईनिक वार्ड में नवजात शिशु को तथा मां को जहां रखा जाता है वहां खिड़कियों में कांच तक नहीं लग पा रहे हैं जिस कारण वहां से इस कडक़ती धूप में गर्म हवा आती है, ठंड में ठडी हवा और बारिश में पानी परंतु वे विवश हैं। जहां शव रखे जाते हैं वहां की हालत तो यह है कि वहां जाने का रास्ता बेहद खराब है और लाइट भी नहीं है। उस तरह तो जैसे किसी की नजर ही नहीं जाती। रसोईघर में स्टाफ की कमी है, वैसे स्टाफ हर जगह कम हैं क्योंकि वेकेंसी होती हैं पर भरी नहीं जाती हैं। ना जाने किस सोच और साजिश के तहत यह घृणित कार्य हो रहा है? एक ट्रक जैसी एम्बूलेंस है अस्पताल में जो मरीज को समय पर गंतव्य पर पहुंचाने का काम कम और ढोने का काम ज्यादा करती है। छोटी एम्बूलेंस और तेज एम्बूलेंस की जरूरत है। क्योंकि अस्पताल शहर से दूर है और छोटा तथा जल्द रास्ता पुलिया के नीचे है से है जहां से यह ट्रक जैसी एम्बूलेंस जा नहीं सकती इसलिए उसे घूमकर जाना पड़ता है। एक ओर जहां अधिकारियों के घरों और सुविधाओं पर या अधिकारी विश्रामगृह पर हजारों रुपए खर्च होते हैं वहां पैसा आ जाता है परंतु इन बुनियादी समस्याओं तथा जरूरतों के लिए पैसा नहीं है यह बात विचित्र है।
सोचने की बात यह है कि हम कब तक बेतुकी दलीलें देकर इन मानव जिंदगियों के साथ खिलवाड़ करेंगे? क्यों एक अस्पताल जैसी जरूरी इकाई पर हम ध्यान नहीं दे सकते हैं।
इंसानियत के लम्हे दुख से भरे हुए हैं
हर लब पे है खामेशी और लोग डरे हुए हैं
सच्चाई दब गई है इंसान मर गया है
लंका का दानव फिर से सीता हो हर गया है
ए मानव अगर न जागा हो जाएगा अंधेरा
छाएगी काली बदली न होगा फिर सवेरा