संपादकीय
देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों का बहुत बड़ा योगदान होता है। यह समाज का वो बुद्धिजीवी वर्ग है जो आम आदमी की विचारधारा को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है। इनकी अनदेखी करना किसी भी सरकार के लिए आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। ये कर्मचारी देश की प्रगति में पूरी लगन और निष्ठा के साथ जुटे रहते हैं। सरकार जो भी आदेश पारित करती है, नीतियां बनाती है उनको अमलीजामा पहनाने का काम इन्हीं के कंधों पर होता है। संसद में चुने गए प्रतिनिधि भी इसी श्रेणी में आते हैं। सवाल यह उठता है कि सांसदों के वेतन, भत्ते आदि कभी भी मनचाहे ढंग से हाथ उठाकर बढ़ा दिए जाते हैं जबकि विभिन्न मंत्रालयों के अधीन कार्य करने वाले कर्मचारियों के वेतन, भत्ते आदि में संशोधन के लिए 10 वर्षों के अंतराल के बाद केंद्रीय वेतन आयोग बैठाया जाता है वो भी बड़ी मशक्कत करने के बाद। आयोग की रिपोर्ट आने में समय लगता है फिर उसकी सिफारिशों में मनमाने ढग़ से फेरबदल कर लागू करने में महीनों निकाल दिए जाते हैं। यही हाल 7वें केंद्रीय वेतन आयोग का भी हुआ है। एक तरफ इसमें कर्मचारियों को अपेक्षा के अनुरूप कुछ नहीं मिला दूसरी ओर जो कुछ भत्तों के रूप में मिलना था उस पर भी सरकार कुंडली मार के बैठ गई है। तमाम तरह की बैठकें हुई, आश्वासन दिए गए परंतु आज – कल करते-करते डेढ़ वर्ष से भी अधिक का समय बीच चुका है और कोई भी नतीजा सामने नहीं आया है। सरकार वादाखिलाफी की सारी हदें पार कर चुकी है। एक ओर सबका साथ-सबका विकास की बात की जाती है वहीं दूसरी ओर कर्मचारियों और उनके परिवारों के भविष्य की सरकार को कोई परवाह ही नहीं है। कर्मचारियों का आर्थिक शोषण किया जा रहा है, किसानों पर अत्याचार किए जा रहे हैं। समझ में नहीं आता सरकार किस विकास की बात कर रही है। कर्मचारियों के सब्र का बांध टूटता जा रहा है। उनकी मानसिक उद्वग्निता बढ़ती जा रही है, विश्वास टूट रहा है। ऐसी स्थिति से औद्योगिक सौहाद्र एवं सरकारी कामकाज पर प्रतिकूल प्रभाव पडऩा स्वाभाविक है। सरकार कर्मचारियों की धैर्य की परीक्षा लेना बंद करे अन्यथा इसके भीषण परिणाम हो सकते हैं। कहीं ऐसा न हो कि कर्मचारियों के धैर्य का बांध टूट जाए और विद्रोह सडक़ पर उतर जाए।